Saturday, December 25, 2010

क्यों पीयें हम चौधरी की चाय और क्यों पहनें हम रूपा का जांघिया ? कोई ज़बर्दस्ती है क्या ?

जैसे ही जलगाँव से ट्रेन चली, मानो तूफ़ान सा गया बोगी में.........

हालाँकि वातानुकूलित यान में बाहरी फेरी वालों का आना और चिल्लाना

मना है परन्तु दो-तीन लोग घुस आये अन्दर और सुबह सुबह लगे शोर

करने, " चौधरी की चाय पियो ...चौधरी की चाय पियो " मेरा दिमाग ख़राब

हो गया होना ही था


अरे भाई क्यों पीयें हम चौधरी की चाय ? चौधरी की हम पी लेंगे तो वो क्या

पीयेगा बेचारा ? कंगाल समझा है क्या ? अपनी चाय भी खरीद कर नहीं पी

सकते क्या हम ? चौधरी ने क्या राज भाटिया की तरह हमको ब्लोगर मीट

में बुला रखा है कि उसकी चाय फ़ोकट में पीलें ?


घर आकर टी वी ओन किया तो और दिमाग ख़राब हो गया विज्ञापन

रहा था - 'रूपा के जांघिये पहनें, रूपा के जांघिये पहनें ..' यार फिर वही बात,

ये हो क्या गया है लोगों को ? क्यों पहनें हम रूपा के जांघिये ? हम अपने

ख़ुद के पहन लें, तो ही बड़ी बात है और फिर हम ठहरे पुलिंगी, तो स्त्रीलिंगी

जांघिये पहना कर तुम हमारा जुलूस क्यों निकालना चाहते हो भाई ? चलो,

तुम्हारे इसरार पर हमने रूपा के जांघिये पहन भी लिए तो तुम्हारा क्या

भरोसा..कल को तुम तो कहोगे रूपा की ब्रा भी पहन लो.......... भाई !

हम नहीं पहनते रूपा के जांघिये...........जा के कह दो अपनी रूपा से कि

अपने जांघिये ख़ुद ही पहनें - हमारे पास ख़ुद के हैं लक्स कोज़ी



नेट खोला तो पता चला कि मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी

वाले गानों का विरोध हो रहा है कमाल है भाई......गाना गाने वाली नारी,

गाने पर नाचने वाली नारी और नचाने वाली भी नारी और विरोध करने

वाली भी नारी !


एक वो भली मानस नारी जो अभी अभी बिग बोस के "चकलाघर" से

बाहर आई है, कह रही है कि उसने जो किया वो तहज़ीब के अनुसार ही

था यानी उसने कोई सीमा नहीं लांघी..........यही तो दुःख है कि सीमा नहीं

लांघी ! अब लांघ जाओ बाई ! जाओ तुम्हारे देश की सीमा में घुस जाओ

यहाँ का माहौल गर्म मत करो.........थोड़ी बहुत लाज बची रहने दो बच्चों

की आँख में, पूरी नस्ल को बे-शर्म मत करो


सब को प्याज़ की पड़ी है पता नहीं प्याज़ के भाव सुन कर लोग क्यों रो

देते हैं ? प्याज़ बेचारा सिर्फ़ 80 रूपये किलो बिका तो लोग चिल्लाने लगे,

जबकि लहसुन 300 रुपये किलो बिक रहा है, उसकी कोई परवाह ही नहीं

...जैसे लहसुन के तो खेत उगा रखे हैं मामा जी ने..........



खैर आज मेरा कोई वाद-विवाद का मन नहीं है क्योंकि आज बड़ा दिन है

और बड़े दिन की बधाई देना मेरा सामाजिक दायित्व है तो प्यारे मित्रो !

बड़े दिन की ख़ूब बधाई - रहे मुबारक ये मंहगाई !


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Friday, December 10, 2010

जब तक पुरूष वर्ग "नारी" को माँ, बहन, दीदी, मौसी, चाची कहता है तब तक फ़ोकट में तनाव पैदा मत करो 'जी'





नारी ब्लॉग पर नज़र पड़ी तो रचना 'जी' की एक पूर्णतः पूर्वाग्रहग्रसित

परेशान पोस्ट इस सवाल पर टसुए बहाती दिखी
कि 50-55 वर्ष के पुरूष

ब्लोगर अपनी हम उम्र नारी ब्लोगर को 'माँ' क्यों कह देते हैं ? 'जी' उस

पोस्ट में महिलाओं को प्रेरित कर रही थी कि वे भी पुरूषों को दादा,

नाना, पिता इत्यादि सम्बोधन दिया करे.....ऐसा कुछ अजीब सा मसला

था जिस पर टिप्पणी देना अपना परम पुनीत दायित्व समझ कर मैंने

ये टिप्पणी की थी :


"किसी 50 -55 साल के पुरूष ने किसी हम उम्र महिला को माँ कहा हो, अभी तक ऐसा बेवकूफ़ाना उदाहरणहमारी आँखों ने तो नहीं देखा है, आपने कहीं देखा हो, तो पहले हमें दिखाइए.......फिर पोस्ट बनाइये ...यों कोरीकल्पनाओं के घोड़े दौड़ा कर फोकट का तमाशा बनाइये .

वैसे भी माँ और बहन दो ऐसे सम्मानित सम्बोधन हैं जो निर्विवाद हैं, इन पर भी विवाद खड़ा करके नारी कीगरिमा पर कोई सवाल अंकित मत करो...........भगवान के लिए मातृशक्ति का भाल कलंकित मत करो"


यह टिप्पणी 'जी' को पसन्द नहीं आई होगी इसलिए उन्होंने नहीं लगाई

अब नहीं लगाई तो नहीं लगाई, ब्लॉग उनका - मर्ज़ी उनकी........परन्तु ये

अखाड़ा अपना है इसलिए अपन ने यहीं पे चिपकादी ताकि इतनी मेहनत

से लिखी गई पंक्तियाँ बेकार जाएँ


अब आता हूँ मुद्दे की बात पर.............तो ऐसा है 'जी' कि भारतीय पुरूष

"माँ" शब्द का प्रयोग एक सम्मान सूचक के रूप में करता है बकौल

गोस्वामी तुलसीदास "पर धन पत्थर जानिये, पर तिरिया मातु
समान"

हालाँकि तुलसीदास के चक्कर में किसी पराई स्त्री को माँ समान

समझना हमारे लिए बड़ा जोखिम का काम है, इससे पिताजी का चरित्र

ख़राब होने का रास्ता खुल जाता है, लेकिन ये रिस्क लेकर भी हम

पराई नारी को माँ के दर्जे से वंचित नहीं करते क्योंकि हमें सिखाया

ही गया है कि मादा को मादा नहीं माँ के सम्बोधन से नवाजो........जैसे

गाय माँ, तुलसी माँ, विद्या माँ, गंगा माँ, यमुना माँ, प्रकृति माँ, लक्ष्मी

माँ, दादी माँ, नानी माँ, छोटी माँ, बड़ी माँ, मुन्ने की माँ, गुड्डू की माँ,

धरती माँ, भारत माँ, यहाँ तक कि चेचक जैसी बीमारी भी शीतला माँ,

माता इत्यादि


हालांकि माँ कह देने से कोई माँ नहीं हो जाती है जैसे हरियाणा में हर

आदमी ख़ुद को ताऊ समझता है और कहलाता भी है परन्तु वो ताऊ

नहीं हो जाता, 80-80 साल की बुढ़िया भी बंगाल टाइगर सौरव गांगुली

को "दादा" कहती हैं परन्तु वो सचमुच दादा नहीं होता, 90 साल का

बूढ़ा बाबा भी अस्पताल में नर्स को " सिस्टर" ही कहता है लेकिन वो

सिस्टर नहीं होती, कुँवारी जयललिता को भी सब लोग अम्मा ही

कहते हैं पर वो अम्मा नहीं है, महाराष्ट्र में हर आदमी "भाऊ" कहलाता

है पर वो भाई नहीं है, मुझे मेरी उम्र की लड़कियां "अंकल" कहती हैं तो

मैं बुरा नहीं मानता वगैरा वगैरा



लिहाज़ा जब तक पुरूष वर्ग "नारी" को माँ, बहन, दीदी, मौसी, चाची

कहता है तब तक फ़ोकट में तनाव पैदा मत करो 'जी' हाँ..........जब

कोई आपको भाभी, साली, घरवाली, जानेमन, सुन्दरी, डार्लिंग, मुन्नी

और शीला जैसे मांसल सम्बोधन देने लगे उस दिन चिन्ता का विषय

होगा


यह पोस्ट अधूरी है क्योंकि समय की मारामार है, अगर ज़रूरत पड़ी तो

इसके बाद भी लिखा जा सकता है पार्ट -2 में..........रुकावट के लिए

खेद है 'जी' !


सदैव विनम्र

-अलबेला खत्री



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Monday, December 6, 2010

कंस की जगह अगर अपना कोई बुद्धिजीवी ब्लोगर होता ?





अविनाश वाचस्पति ने कर ली आंखें लाल

चैट पे आते ही कल मुझ से किया सवाल

"वाद-विवाद" क्यों ?

"संवाद" क्यों नहीं ?


मैंने कहा,

"अब बेवकूफों के सर पे सींग तो होते नहीं,

वरना मेरे भी होते"

और मुझसे भी पहले राक्षसराज कंस के होते"


मुकेश खोरडिया बोले,
"कंस मामा" के सींग होते भला किसलिए ?

मैं बोला,

"देवकी और
वसुदेव को बन्दीगृह में साथ-साथ रखा इसलिए"


कंस की जगह अगर अपना कोई बुद्धिजीवी ब्लोगर होता

जैसे ताऊ रामपुरिया, ललित शर्मा, राजीव तनेजा या राज भाटिया

तो ऐसी मूर्खता हरगिज़ नहीं करता

दोनों को अलग
-अलग जेल में भरता

इस प्रकार हालात अपने पक्ष में एरेन्ज कर लेता

और एक idea से अपनी life change कर लेता


रही बात सम्वाद की

और वाद-विवाद की

तो मेरा दृढ रूप से मानना है कि वाद-विवाद, बकवाद नहीं है

उन्माद के माहौल में वाद-विवाद ही सम्भव है,सम्वाद नहीं है

जब राम के देश में, राम की जन्म-भूमि तक निर्विवाद नहीं है

तो मेरा 'वाद-विवाद मंच' बनाना आम बात है, अपवाद नहीं है


क्योंकि वाद-विवाद से केवल हास और परिहास बनते हैं

बल्कि किस्से, कहानियां, किवदन्तियां इतिहास बनते हैं

वाद-विवाद नहीं होता तो कुरुक्षेत्र में गीता का जनम नहीं होता

अष्टावक्र, शुक्राचार्य, विदुर, आस्तिक जैसों का क़रम नहीं होता


विवाद तो अनिवार्य प्रक्रिया है प्रसंग को उभारने की

यानी दही को मथ - मथ कर माखन निकालने की

जब देवों और राक्षसों में कोरे सम्वाद से हल नहीं निकला

और सागर मंथन के ज़रिये जब तक हलाहल नहीं निकला

तब तक क्या हासिल हुआ था "ठन ठन गोपाल ?"



ऐरावत से लेकर अमृत तक सारे के सारे रत्न मन्थन से ही प्राप्त हुए हैं

इसलिए हे वाचस्पतिजी !

मेरी तरह आप भी मान लीजिये कि

कि उन्माद के मसले सम्वाद से नहीं,वाद-विवाद से ही समाप्त हुए हैं


-अलबेला खत्री


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Saturday, December 4, 2010

फ़िल्मी भांड कहीं ज़्यादा महान हैं इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से





जन्म
से मैं हिन्दू हूँ और अपने कुल देवता से ले कर इष्टदेव तक सभी को

नमन करता हूँ अपने आराध्य सतगुरू के बताये आन्तरिक मार्ग पर

चलने की कोशिश भी कभी कभी कर लेता हूँ मेरे स्वर्गवासी पिताजी ने

श्री गुरूनानकदेवजी की शरण ले रखी थी और उनपर गुरू साहेब की

प्रत्यक्ष मेहर थी माताजी जगदम्बा की साधना करती हैं, भाई लोग

शिव भक्त हैं और पत्नी मेरी चूँकि मुस्लिम मोहल्ले में पली बढ़ी है इसलिए

वह नमाज़ भी पढ़ लेती है और रोज़े भी रखती है कुल मिला कर सब

अपनी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, कोई किसी पर अपनी मान्यता की

महानता का थोपन नहीं करता



परन्तु मैंने अक्सर महसूस किया है, महसूस की ऐसी-तैसी....साक्षात्

देखा है कि यहाँ ब्लोगिंग क्षेत्र में अनेक विद्वान बन्धु, जो कि समाज का

बहुत ही भला और कल्याण करने का सामर्थ्य रखते हैं, अकारण ही

आपस में उलझे रहते हैं सिर्फ़ इस मुद्दे को ले कर कि तेरे धर्म से मेरा

धर्म बड़ा है अथवा मेरा खुदा तेरे ईश्वर से ज़्यादा महान है या ईश्वर

रचित वेदों पर पवित्र कुरआन भारी है इत्यादि इत्यादि इस लफड़े में

समय भी खर्च होता है और ऊर्जा भी जबकि परिणाम रहता है

"ठन ठन गोपाल"


मैंने अब तक सिर्फ़ ये महसूस किया है कि आदमी को ईश्वर ने इसलिए

बनाया है ताकि उसकी बनाई इस सुन्दर और विराट सृष्टि को वह ढंग से

चला सके जिस प्रकार एक बाप अपने बेटे को दूकान खोल कर दे देता

है "ले बेटा, इसे चला और कमा - खा " अब बेटे का फ़र्ज़ है कि वह उस

दूकान को अपनी मेहनत से और ज़्यादा सजाये, संवारे, विस्तार दे

........यदि वह ऐसा करके केवल बाज़ार के अन्य दूकानदारों से ही

झगड़ता रहे कि मेरी दूकान तेरी दूकान से बड़ी है या मेरा बाप तेरे बाप

से ज़्यादा पैसे वाला है तो बाप के पास सिवाय माथा पीटने के और

कोई विकल्प नहीं बचता


हम सब
एक ही बाप के बेटे हैं, एक ही समुद्र के कतरे हैं, ये जानते बूझते

भी हम क्यों ख़ुद को धोखा दे रहे हैं भाई ?


जब हमारे पुरखों ने अपने अनुभव से बार बार ये फ़रमाया है कि " अव्वल

अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे - एक नूर ते सब जग उपज्या

कौन भले कौन मन्दे" तो फिर आखिर हमें ऐसी कौन सी लत पड़ गई है

दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता लादने की ?


मैं किसी धर्म का विरोध नहीं करता लेकिन बावजूद इसके हिन्दूत्व

पर मुझे गर्व है क्योंकि भले ही इसमें विभिन्न प्रकार के पाखण्ड और

कर्म-काण्ड प्रवेश कर गये हैं परन्तु इसकी केवल चार पंक्तियों में ही

धर्म का सारा सार जाता है और ये चार पंक्तियाँ मैं बचपन से सुनता

- बोलता आया हूँ ..आपने भी सुनी-पढ़ी होंगी :


1 धर्म की जय हो

2 अधर्म का नाश हो

3 प्राणियों में सद्भावना हो

4 विश्व का कल्याण हो


ध्यान से देखिये और समझिये कि यहाँ "धर्म" की जय हो रही है किसी

ख़ास धर्म का ज़िक्र नहीं है, धर्म मात्र की जय हो रही है याने सब

धर्मों की जय हो रही है


"अधर्म" के नाश की कामना की जा रही है अर्थात जो कृत्य " अधर्म"

में आता है उसके विनाश की कामना है, किसी दूसरे के धर्म को अधर्म बता

कर उसके नाश का सयापा नहीं किया जा रहा


"प्राणियों" में सद्भाव से अभिप्राय जगत के तमाम पेड़ पौधों, कीड़े-मकौडों,

जीव -जन्तुओं,पशुओं और मानव सभी में आपसी सद्भाव और सहजीवन

की प्रेरणा दी जा रही है केवल हिन्दुओं में सद्भावना हो, ऐसा नहीं कहा


गया है


"विश्व" का कल्याण हो, इस से ज़्यादा और मंगलकारी कौन सा वरदान

परमात्मा हमें दे सकता है , ये नहीं कहा गया कि भारत का कल्याण हो

कि राजस्थान का कल्याण हो, सम्पूर्ण सृष्टि के मंगल की कामना की

जा रही है किसी पाकिस्तान का विरोध, चीन का, ही

अरब या तुर्क का ...


यदि इन चार सूत्रों के जानने और मानने के बाद भी कोई विद्वान

अन्य बातों पर समय व्यर्थ करे तो वह मेरी समझ में क्रोध का नहीं,

करुणा का पात्र है, कारण ये है करुणा का कि वो बेचारा जीवन को जी

नहीं रहा है, फ़ोकट ख़राब कर रहा है क्योंकि धर्म जिसे कहते हैं,

वो तो इन चार पंक्तियों में गया ..बाकी सब तो बातें हैं बातों का क्या !


इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से तो

वे फ़िल्मी भांड अच्छे जो नाचते गाते ये कहते हैं :

गोरे उसके,काले उसके

पूरब-पछिम वाले उसके

सब में उसी का नूर समाया

कौन है अपना कौन पराया

सबको कर परणाम तुझको अल्लाह रखे.................$$$$$$


-अलबेला खत्री


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बलात्कार और यौन शोषण से बढ़िया और क्या विषय हो सकता है सुबह सुबह बांचने के लिए






आज सुबह मैंने "नारी" ब्लॉग पर एक पोस्ट देखी और मुझे जैसा

उचित लगा मैंने अपना अभिमत उस पर टिप्पणी के रूप में दे दिया

कुछ ही क्षण बाद वह टिप्पणी प्रकाशित भी हो गईजब मैंने टिप्पणी

लिखनी शुरू की थी तब तक केवल वहां एक ही टिप्पणी थी श्री मनोज

कुमार की और जब मेरी प्रकाशित हुई तब एक और लग चुकी थी सुश्री

मंजुला जी की अर्थात कुल तीन टिप्पणियां तब वहां हो चुकी थीं


लेकिन कुछ ही क्षण बाद


मेरी टिप्पणी वहां से गायब हो गई


खैर ये "नारी" ब्लॉग वालों का अधिकार है कि वो किसी टिप्पणी को

रखे या हटाये.......मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है परन्तु ये तो गलत

बात है कि आप मेरी टिप्पणी हटा भी दें और उसका लाभ भी लें

.......क्योंकि ब्लॉग पर मेरी टिप्पणी नहीं दिख रही है परन्तु

चिट्ठाजगत में देखो तो वह उसे भी गिनती में शामिल कर रहा है

मतलब ये हुआ कि संख्या बढ़ाने के लिए आप किसी की टिप्पणी

छाप देते हैं और वैचारिक मतभेद के कारण ख़ुद के ब्लॉग से टिप्पणी

हटा देते हैं बिना कोई कारण बताये......



आप सच के लिए लड़ने की बात करते हो और सच से इतना डरते हो ?


मेरी समझ में आप नारी के सम्मान की रक्षा करने के नाम पर नारी

का अपमान कर रहे हो - क्यों भाई क्यों ? क्या नारी इत्ती कमज़र्फ और

कायर है कि वो सच का सामना कर सके ?


आखिर उस टिप्पणी में ऐसा क्या था जो आपकी पोल खोल रहा था !


मैं जानता हूँ आप नहीं बताएँगे.......क्योंकि बताने का सामर्थ्य ही होता

तो उसे चुपके से हटाते ही क्यों ? हा हा हा हा


चलो मैं ही दिखा देता हूँ कि उस टिप्पणी में मैंने क्या लिखा थाबाकी

निर्णय पाठक करेंगे कि मैंने उसमे जो लिखा वो गलत था या सही ?




मेरी टिप्पणी थी :



बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया आपने........वाह ! बधाई !!

बलात्कार और यौन शोषण से बढ़िया और क्या विषय हो सकता है सुबह सुबह बांचने के लिए........साधु ! साधु ! हनुमान चालीसा सुनने के समय यौन पर विचार करना एक अद्भुत अनुभव है ..इस संयोजन के लिए आपको लाख लाख मुबारकबाद !

परन्तु मामला कुछ गड्डमड्ड हो गया है, आपने बलात्कार और यौन शोषण को शायद एक ही अर्थ में समझ लिया है जबकि ये दोनों अलग अलग क्रियाएं, अलग प्रक्रियाएं हैं, इसलिए दोनों के लिए मेरी अलग अलग प्रतिक्रियाएं हैं .

यौन शोषण देह से देह द्वारा होता है जबकि बलात्कार में देह शामिल हो, ये ज़रूरी नहीं ....बलपूर्वक किसी से कोई भी काम कराया जाये तो वह बलात्कार ही कहलाता है . जैसे फोन कर कर के किसी से किसी खास पोस्ट पर टिप्पणी कराई जाये अथवा किसी की पोस्ट पर टिप्पणी रुकवाई जाये, वह भी एक प्रकार का बलात्कार है

बहरहाल मेरा भी मत वही है जो मनोज कुमार जी का है

धन्यवाद

-अलबेला खत्री



जो टिप्पणी ब्लॉग से गायब है

उसे चिट्ठाजगत अभी भी दिखा रहा है आप स्वयं देखें :



6 घण्टे पूर्व नारी , NAARI... पर रचना
अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसने बलात्कार या यौन शोषण किया हैं { केवल शक का आधार नहीं आप को पक्का पता हैं } और आप उस व्यक्ति की शादी होते देखते हैं तो क्या ...समाज
चिट्ठा
close
हां, हम सामाजिक बहिष्कार करेंगे। ...
5 घण्टे पूर्व मनोज कुमार
जी हां, हम सामाजिक बहिष्कार करेंगे ...
5 घण्टे पूर्व मंजुला
बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया आपने........वाह ! बधाई ... ...
5 घण्टे पूर्व AlbelaKhatri.com
सामाजिक बहिष्कार ...
2 घण्टे पूर्व Girish Billore 'mukul'
samajik bahishkar iska matra ek upay hai.jo ham ka... ...
1 घण्टे पूर्व shalini kaushik



विनम्र


-अलबेला खत्री



अथ वाद-विवाद मंच कथा




बहुत दिनों से परेशान था मैं

इसलिए नहीं कि गुड्डू कि माँ मायके से लौट आई है

उसका आना तो शगुन है

वो है तो घर में फागुन है

परेशानी तो मुझे है उन लोगों से

जो सुबह सुबह उठते ही अपनी-अपनी अनामिका पर

सरसों का तेल लगा लेते हैं और निकल पड़ते हैं शिकार ढूंढने

जैसे ही कोई फंसता है इनके जाल में

उसे इतनी ऊँगली करते हैं, इतनी ऊँगली करते हैं

कि बेचारा दर्द से कराह उठता है


उनका जवाब जब मैं अपने मुख्य ब्लॉग पर देता हूँ तो सम्भ्रान्त लोग

आपत्ति करते हैं इसलिए ये एक अलग ब्लॉग बना दिया है

उनसे निपटने के लिए


इस मंच के सारे द्वार सभी के लिए खुले हैं

यहाँ आप नि:संकोच अपना विरोध,आपत्ति, मतभेद इत्यादि व्यक्त करके

हमें अनुग्रहीत कर सकते हैं ख्याल इतना रहे कि गन्दी गालियों के

लिए यहाँ कोई जगह नहीं है


-अलबेला खत्री


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