जन्म से मैं हिन्दू हूँ और अपने कुल देवता से ले कर इष्टदेव तक सभी को
नमन करता हूँ । अपने आराध्य सतगुरू के बताये आन्तरिक मार्ग पर
चलने की कोशिश भी कभी कभी कर लेता हूँ । मेरे स्वर्गवासी पिताजी ने
श्री गुरूनानकदेवजी की शरण ले रखी थी और उनपर गुरू साहेब की
प्रत्यक्ष मेहर थी । माताजी जगदम्बा की साधना करती हैं, भाई लोग
शिव भक्त हैं और पत्नी मेरी चूँकि मुस्लिम मोहल्ले में पली बढ़ी है इसलिए
वह नमाज़ भी पढ़ लेती है और रोज़े भी रखती है । कुल मिला कर सब
अपनी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, कोई किसी पर अपनी मान्यता की
महानता का थोपन नहीं करता ।
परन्तु मैंने अक्सर महसूस किया है, महसूस की ऐसी-तैसी....साक्षात्
देखा है कि यहाँ ब्लोगिंग क्षेत्र में अनेक विद्वान बन्धु, जो कि समाज का
बहुत ही भला और कल्याण करने का सामर्थ्य रखते हैं, अकारण ही
आपस में उलझे रहते हैं सिर्फ़ इस मुद्दे को ले कर कि तेरे धर्म से मेरा
धर्म बड़ा है अथवा मेरा खुदा तेरे ईश्वर से ज़्यादा महान है या ईश्वर
रचित वेदों पर पवित्र कुरआन भारी है इत्यादि इत्यादि । इस लफड़े में
समय भी खर्च होता है और ऊर्जा भी जबकि परिणाम रहता है
"ठन ठन गोपाल"
मैंने अब तक सिर्फ़ ये महसूस किया है कि आदमी को ईश्वर ने इसलिए
बनाया है ताकि उसकी बनाई इस सुन्दर और विराट सृष्टि को वह ढंग से
चला सके । जिस प्रकार एक बाप अपने बेटे को दूकान खोल कर दे देता
है "ले बेटा, इसे चला और कमा - खा ।" अब बेटे का फ़र्ज़ है कि वह उस
दूकान को अपनी मेहनत से और ज़्यादा सजाये, संवारे, विस्तार दे
........यदि वह ऐसा न करके केवल बाज़ार के अन्य दूकानदारों से ही
झगड़ता रहे कि मेरी दूकान तेरी दूकान से बड़ी है या मेरा बाप तेरे बाप
से ज़्यादा पैसे वाला है तो बाप के पास सिवाय माथा पीटने के और
कोई विकल्प नहीं बचता ।
हम सब एक ही बाप के बेटे हैं, एक ही समुद्र के कतरे हैं, ये जानते बूझते
भी हम क्यों ख़ुद को धोखा दे रहे हैं भाई ?
जब हमारे पुरखों ने अपने अनुभव से बार बार ये फ़रमाया है कि " अव्वल
अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे - एक नूर ते सब जग उपज्या
कौन भले कौन मन्दे" तो फिर आखिर हमें ऐसी कौन सी लत पड़ गई है
दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता लादने की ?
मैं किसी धर्म का विरोध नहीं करता । लेकिन बावजूद इसके हिन्दूत्व
पर मुझे गर्व है क्योंकि भले ही इसमें विभिन्न प्रकार के पाखण्ड और
कर्म-काण्ड प्रवेश कर गये हैं परन्तु इसकी केवल चार पंक्तियों में ही
धर्म का सारा सार आ जाता है और ये चार पंक्तियाँ मैं बचपन से सुनता
- बोलता आया हूँ ..आपने भी सुनी-पढ़ी होंगी :
1 धर्म की जय हो
2 अधर्म का नाश हो
3 प्राणियों में सद्भावना हो
4 विश्व का कल्याण हो
ध्यान से देखिये और समझिये कि यहाँ "धर्म" की जय हो रही है । किसी
ख़ास धर्म का ज़िक्र नहीं है, धर्म मात्र की जय हो रही है याने सब
धर्मों की जय हो रही है ।
"अधर्म" के नाश की कामना की जा रही है । अर्थात जो कृत्य " अधर्म"
में आता है उसके विनाश की कामना है, किसी दूसरे के धर्म को अधर्म बता
कर उसके नाश का सयापा नहीं किया जा रहा ।
"प्राणियों" में सद्भाव से अभिप्राय जगत के तमाम पेड़ पौधों, कीड़े-मकौडों,
जीव -जन्तुओं,पशुओं और मानव सभी में आपसी सद्भाव और सहजीवन
की प्रेरणा दी जा रही है । केवल हिन्दुओं में सद्भावना हो, ऐसा नहीं कहा
गया है ।
"विश्व" का कल्याण हो, इस से ज़्यादा और मंगलकारी कौन सा वरदान
परमात्मा हमें दे सकता है , ये नहीं कहा गया कि भारत का कल्याण हो
कि राजस्थान का कल्याण हो, सम्पूर्ण सृष्टि के मंगल की कामना की
जा रही है । न किसी पाकिस्तान का विरोध, न चीन का, न ही
अरब या तुर्क का ...
यदि इन चार सूत्रों के जानने और मानने के बाद भी कोई विद्वान
अन्य बातों पर समय व्यर्थ करे तो वह मेरी समझ में क्रोध का नहीं,
करुणा का पात्र है, कारण ये है करुणा का कि वो बेचारा जीवन को जी
नहीं रहा है, फ़ोकट ख़राब कर रहा है । क्योंकि धर्म जिसे कहते हैं,
वो तो इन चार पंक्तियों में आ गया ..बाकी सब तो बातें हैं बातों का क्या !
इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से तो
वे फ़िल्मी भांड अच्छे जो नाचते गाते ये कहते हैं :
गोरे उसके,काले उसके
पूरब-पछिम वाले उसके
सब में उसी का नूर समाया
कौन है अपना कौन पराया
सबको कर परणाम तुझको अल्लाह रखे.................$$$$$$
-अलबेला खत्री
विचारणीय...सार्थक...
ReplyDeleteVishwa ka kalyan ho.
ReplyDeleteShandar vicharon ke liye shubhkamnaye.
Isi tarah amritpan karate rahe.
aabhaar
ye to bohot achi baaten kahi aapne, dharm par aisi sundar shbdmala ke liye aapko pranaam
ReplyDeletenice article
ReplyDeleteहार्दिक शुभ कामनाएं
ReplyDeletedharmon ke nam par khunkharaba karne walon ko ye lekh padhna chaahie
ReplyDeletealbela bhaiya ap sachmuch albele hen / aapko koti koti abhenandan
good luck
ReplyDeleteyou r the master of word
jay ho
बहुत ही सुंदर. अलबेला जी बहुत बहुत शुक्रिया, की आप अपने ब्लॉग से हमेशा बेहतरीन सन्देश दिया करते हैं.
ReplyDeleteमतलब कि सौ सुनार कि और एक लुहार कि. सब चिल्लाते रहे और जनाब जरा से ही बात में सब कुछ कह गये.
ReplyDeleteखैर आपको इसीलिए तो हम गुरु मानते हैं.
दु:खद है आज धर्म ही धंधा हो गया है.
ReplyDeleteधर्म पर चहकने वाले पहले यह तो जान ले धर्म क्या है .
ReplyDeleteअलबेला जी, बहुत ही सुन्दर सन्देश देता हुआ पोस्ट लिखा है आपने।
ReplyDeleteईश्वर उन्हें इस पोस्ट को समझने की सद्बुद्धि दे जो धर्मों को विवाद बनाने का प्रयास करते हैं।
"ऊँच विचार-नीच करतूती" सिद्धान्त को मानने वाले इन लम्पटों की जमात से ऎसी उम्मीद पालना भी बेमानी है कि ये लोग सुधर जाएंगें.
ReplyDeleteधर्म तो नितान्त निजी मामला है। यह प्रदर्शन का नहीं, आचरण का विषय है। संगठित धर्म किसी का भला नहीं करता - न तो व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का।
ReplyDeleteVery good post! Congratulations
ReplyDeletejai ho dada !
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट ! धर्म के ठेकेदारो को पढ़वानी पड़ेगी |शायद सद बुद्धि आजाये |
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